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कविता

नागफनियाँ-वन

रमेश चंद्र पंत


देखिए ना
अब समय की,
चाल कैसी हो गई है।

सामने मिलते हैं हँस-हँस लोग
पीछे -
           पीठ में नश्तर चुभाते है
भूलकर भाषा गुलाबों की यहाँ
भद्रजन
नागफनियाँ-वन उगाते हैं

जंगलों में
गंध मौसम की
कहीं फिर खो गई है।

हो चली हैं बस्तियाँ खंडहर
अँधेरे -
           बेतरह से खिलखिलाते हैं
हो गए हैं भीड़ में सब गुम
न जाने,
           कौन-सी दुनिया बसाते हैं।

इस तरह
कुछ काँच की
किरिचें सदी यह बो गई है।


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