देखिए ना
अब समय की,
चाल कैसी हो गई है।
सामने मिलते हैं हँस-हँस लोग
पीछे -
पीठ में नश्तर चुभाते है
भूलकर भाषा गुलाबों की यहाँ
भद्रजन
नागफनियाँ-वन उगाते हैं
जंगलों में
गंध मौसम की
कहीं फिर खो गई है।
हो चली हैं बस्तियाँ खंडहर
अँधेरे -
बेतरह से खिलखिलाते हैं
हो गए हैं भीड़ में सब गुम
न जाने,
कौन-सी दुनिया बसाते हैं।
इस तरह
कुछ काँच की
किरिचें सदी यह बो गई है।